आज का फरमान (मुखवाक, हिंदी में ), hukamnama from Golden Temple, 01.05.21

  आज का फरमान (मुखवाक, हिंदी में )


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आज का फरमान (मुखवाक )

{श्री दरबार साहिब, श्री अमृतसर , तिथि:- 01.05.2021,

दिन शनिवार, पृष्ठ – 584}

 

वडहंसु मः ३ ॥

रोवहि पिरहि विछुंनीआ मै पिरु सचड़ा है सदा नाले ॥ जिनी चलणु सही जाणिआ सतिगुरु सेवहि नामु समाले ॥ सदा नामु समाले सतिगुरु है नाले सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ ॥ सबदे कालु मारि सचु उरि धारि फिरि आवण जाणु न होइआ ॥ सचा साहिबु सची नाई वेखै नदरि निहाले ॥ रोवहि पिरहु विछुंनीआ मै पिरु सचड़ा है सदा नाले ॥१॥ प्रभु मेरा साहिबु सभ दू ऊचा है किव मिलां प्रीतम पिआरे ॥ सतिगुरि मेली तां सहजि मिली पिरु राखिआ उर धारे ॥ सदा उर धारे नेहु नालि पिआरे सतिगुर ते पिरु दिसै ॥ माइआ मोह का कचा चोला तितु पैधै पगु खिसै ॥ पिर रंगि राता सो सचा चोला तितु पैधै तिखा निवारे ॥ प्रभु मेरा साहिबु सभ दू ऊचा है किउ मिला प्रीतम पिआरे ॥२॥ मै प्रभु सचु पछाणिआ होर भूली अवगणिआरे ॥ मै सदा रावे पिरु आपणा सचड़ै सबदि वीचारे ॥ सचै सबदि वीचारे रंगि राती नारे मिलि सतिगुर प्रीतमु पाइआ ॥ अंतरि रंगि राती सहजे माती गइआ दुसमनु दूखु सबाइआ ॥ अपने गुर कंउ तनु मनु दीजै तां मनु भीजै त्रिसना दूख निवारे ॥ मै पिरु सचु पछाणिआ होर भूली अवगणिआरे ॥३॥ सचड़ै आपि जगतु उपाइआ गुर बिनु घोर अंधारो ॥ आपि मिलाए आपि मिलै आपे देइ पिआरो ॥ आपे देइ पिआरो सहजि वापारो गुरमुखि जनमु सवारे ॥ धनु जग महि आइआ आपु गवाइआ दरि साचै सचिआरो ॥ गिआनि रतनि घटि चानणु होआ नानक नाम पिआरो ॥ सचड़ै आपि जगतु उपाइआ गुर बिनु घोर अंधारो ॥४॥३॥

 

व्याख्या (अर्थ):-

वडहंसु मः ३ ॥

                 प्रभु-पति से विछुड़ी हुई जीव-स्त्रीयां सदा दुखी रहती हैं (वे नहीं जानती कि) मेरा प्रभु-पति सदा जीता-जागता है, और, सदा हमारे साथ बसता है। हे भाई! जिस जीवों ने (जगत से आखिर) चले जाने को ठीक मान लिया है वे परमात्मा का नाम हृदय में बसा के गुरु की बताई हुई सेवा करते हैं। हे भाई! जो मनुष्य प्रभु के नाम को दिल में सदा बसाए रखता है, गुरु उस के अंग-संग बसता है, वह गुरु के द्वारा बताई हुई सेवा करके सुख लेता है। गुरु के शब्द की इनायत से मौत के डर को दूर करके वह मनुष्य सदा स्थिर प्रभु को अपने हृदय में बसाता है, उसको दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं पड़ता। हे भाई! मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसकी बड़ाई सदा कायम रहने वाली है, वह मेहर की निगाह करके (सब जीवों की) संभाल करता है। (पर) प्रभु-पति से विछुड़ी हुई जीव-स्त्रीयां सदा दुखी रहती हैं (वह नहीं जानतीं कि) मेरा प्रभु-पति सदा जीता-जागता है, और सदा हमारे साथ बसता है।1। हे भाई! मेरा मालिक प्रभु सबसे ऊँचा है (पर मैं जीव-स्त्री बड़े नीचे जीवन वाली हूँ) मैं उस प्यारे-प्रीतम को कैसे मिल सकती हूँ? जब गुरु ने (किसी जीव-स्त्री को उस प्रभु में) मिलाया, तो वह आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभु के साथ मिल गई, उस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति को अपने हृदय में बसा लिया। वह जीव-स्त्री प्रभु को सदा अपने हृदय में बसाए रखती है वह सदा प्यारे-प्रभु से प्यार बनाए रखती है। हे भाई! गुरु के माध्यम से प्रभु-पति के दर्शन होते हैं। माया का मोह, जैसे कच्चे रंग वाला चोला है, अगर ये चोला पहने रखें, (आत्मिक जीवन के राह में मनुष्य का) पैर फिसलता ही रहता है। प्रभु-पति के प्रेम-रंग में रंगा हुआ चोला पक्के रंग वाला है, अगर ये चोला पहन लें, तो (प्रभु का प्यार मनुष्य के हृदय में से माया की) तृष्णा दूर कर देता है। हे भाई! मेरा मालिक प्रभु सबसे ऊँचा है (पर मैं जीव-स्त्री बहुत ही तुच्छ जीवन वाली हूँ) मैं उस प्यारे पति को कैसे मिल सकती हूँ?।2। (गुरु ने मेरे पर मेहर की, तब) मैंने सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ सांझ डाल ली (पहचान बना ली)। जिसे गुरु का मिलाप नसीब ना हुआ वह अवगुण में फंसी रही और प्रभु-चरणों से वंचित रही। गुरु के शब्द से सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुणों की विचार करने के कारण मेरा प्रभु-पति मुझे सदा अपने चरणों में जोड़े रखता है। जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द द्वारा सदा-स्थिर प्रभु के गुणों की विचार अपने मन में बसाती है, वह प्रभु के प्रेम-रंग में रंगी रहती है, गुरु को मिल के वह प्रभु-प्रीतम को (अपने अंदर ही) पा लेती है, वह अपने अंतरात्मे परमात्मा के प्यार-रंग में रंगी रहती है, वह सदा आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है, (उसके विकार आदि) हरेक दुश्मन और दुख दूर हो जाते हैं। हे भाई! ये शरीर और ये मन अपने गुरु के हवाले कर देना चाहिए (जब तन-मन गुरु को दे दें) तब मन (हरि-नाम-रस से) भीग जाता है (गुरु मनुष्य के) तृष्णा आदि दुख दूर कर देता है। (गुरु ने मेरे पर मेहर की तब) मैंने सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ सांझ डाली। जिसे गुरु का मिलाप नसीब ना हुआ वह अवगुणों में फंसी रही और प्रभु-चरणों से वंचित रही।3। हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने खुद यह जगत पैदा किया है, पर गुरु की शरण पड़े बिना जीव को (इसमें आत्मिक जीवन की ओर से) घोर अंधकार (बना रहता) है। (गुरु की शरण पा कर) परमात्मा स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिला लेता है, खुद (ही जीव को) मिलाता है, खुद ही (अपने चरणों का) प्यार बख्शता है। प्रभु खुद ही (अपना) प्यार देता है, (जीव को) आत्मिक अडोलता में टिका के (अपने नाम का) व्यापार करवाता है, और गुरु की शरण पा कर (जीव का) जनम सँवारता है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर अपने अंदर से) स्वै भाव दूर करता है, उसका जगत में आना सफल हो जाता है, वह सदइा-स्थिर रहने वाले प्रभु के दर पर सही स्वीकार हो जाता है। हे नानक! (गुरु से मिले) ज्ञान-रत्न की इनायत से उसके हृदय में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है। हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने स्वयं ये जगत पैदा किया है, पर गुरु की शरण पड़े बिना (जीव को इसमें आत्मिक जीवन की ओर से) घोर अंधकार बना ही रहता है।4।3।

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