आज का फरमान (मुखवाक, हिंदी में )
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आज का फरमान (मुखवाक
)
{श्री दरबार साहिब, श्री अमृतसर , तिथि:- 30.04.2021,
दिन शुक्रवार, पृष्ठ – 763 }
रागु सूही छंत महला १ घरु १
ੴ सतिगुर
प्रसादि ॥
भरि जोबनि मै मत पेईअड़ै घरि पाहुणी बलि राम जीउ ॥ मैली
अवगणि चिति बिनु गुर गुण न समावनी बलि राम जीउ ॥ गुण सार न जाणी भरमि भुलाणी जोबनु
बादि गवाइआ ॥ वरु घरु दरु दरसनु नही जाता पिर का सहजु न भाइआ ॥ सतिगुर पूछि न
मारगि चाली सूती रैणि विहाणी ॥ नानक बालतणि राडेपा बिनु पिर धन कुमलाणी ॥१॥ बाबा
मै वरु देहि मै हरि वरु भावै तिस की बलि राम जीउ ॥ रवि रहिआ जुग चारि त्रिभवण बाणी
जिस की बलि राम जीउ ॥ त्रिभवण कंतु रवै सोहागणि अवगणवंती दूरे ॥ जैसी आसा तैसी
मनसा पूरि रहिआ भरपूरे ॥ हरि की नारि सु सरब सुहागणि रांड न मैलै वेसे ॥ नानक मै
वरु साचा भावै जुगि जुगि प्रीतम तैसे ॥२॥ बाबा लगनु गणाइ हं भी वंञा साहुरै बलि
राम जीउ ॥ साहा हुकमु रजाइ सो न टलै जो प्रभु करै बलि राम जीउ ॥ किरतु पइआ करतै
करि पाइआ मेटि न सकै कोई ॥ जाञी नाउ नरह निहकेवलु रवि रहिआ तिहु लोई ॥ माइ निरासी
रोइ विछुंनी बाली बालै हेते ॥ नानक साच सबदि सुख महली गुर चरणी प्रभु चेते ॥३॥
बाबुलि दितड़ी दूरि ना आवै घरि पेईऐ बलि राम जीउ ॥ रहसी वेखि हदूरि पिरि रावी घरि
सोहीऐ बलि राम जीउ ॥ साचे पिर लोड़ी प्रीतम जोड़ी मति पूरी परधाने ॥ संजोगी मेला
थानि सुहेला गुणवंती गुर गिआने ॥ सतु संतोखु सदा सचु पलै सचु बोलै पिर भाए ॥ नानक
विछुड़ि ना दुखु पाए गुरमति अंकि समाए ॥४॥१॥
व्याख्या (अर्थ):-
रागु सूही छंत महला १ घरु १
ੴ सतिगुर
प्रसादि ॥
हे प्रभु जी! मैं तुझसे सदके हूँ (तूने कैसी आश्चर्यजनक
लीला रचाई है!) जीव-स्त्री (तेरी रची माया के प्रभाव तहत) जवानी के वक्त वह ऐसे
मस्त है जैसे शराब पी के मदहोश है, (ये भी नहीं समझती कि) इस पेके घर
में (इस जगत में) वह एक मेहमान ही है। विकारों की कमाई के कारण चिक्त से वह मैली
रहती है (गुरु की शरण नहीं आती,
और) गुरु (की शरण पड़े) बिना (हृदय में) गुण टिक नहीं सकते।
(माया की) भटकना में पड़ कर जीव-स्त्री ने (प्रभु के) गुणों की कीमत ना समझी, गलत रास्ते पर पड़ी रही, और जवानी का समय व्यर्थ गवा लिया।
ना उसने पति-प्रभु के साथ सांझ डाली, ना उसके दर ना उसके घर और ना ही
उसके दर्शनों की कद्र पहचानी। (भटकना में ही रह कर) जीव-स्त्री को प्रभु-पति का
सुभाव भी पसंद नहीं आया। माया के मोह में सोई हुई जीव-स्त्री की जिंदगी की सारी
रात बीत गई, सतिगुरु की शिक्षा ले के ठीक रास्ते पर कभी ना चली। हे
नानक! ऐसी जीव-स्त्री तो बाली उम्र में ही विधवा हो गई, और प्रभु-पति के मिलाप के बिना उसका हृदय-कमल कुम्हलाया ही
रहा।1। हे प्यारे सतिगुरु! मुझे पति-प्रभु मिला। (मेहर कर) मुझे वह पति-प्रभु
प्यारा लगे, मैं उससे सदके जाऊँ, जो सदा ही हर जगह व्यापक है, तीनों ही भवनों में जिसका हुक्म चल रहा है। तीनों भवनों का
मालिक प्रभु भाग्यशाली जीव-स्त्री से प्यार करता है, पर जिसने अवगुण ही अवगुण सहेड़ लिए
वह उसके चरणों से विछुड़ी रहती है। वह मालिक हरेक के हृदय में व्यापक है (वह हरेक
के दिल की जानता है) जैसी आस ले के कोई उसके दर पर आती है वैसी ही इच्छा वह पूरी
कर देता है। जो जीव-स्त्री प्रभु-पति की बनी रहती है वह सदा सोहाग-भाग वाली है, वह कभी विधवा नहीं होती, उसका वेश कभी मैला नहीं होता (उसका
हृदय कभी विकारों से मैला नहीं होता)। हे नानक! (अरदास कर और कह: हे सतिगुरु! तेरी
मेहर हो तो) वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु-पति मुझे (हमेशा) प्यारा लगता रहे जो
प्रीतम हरेक युग में एक समान रहने वाला है।2। हे सतिगुरु! (वह) महूरत निकलवा (वह
अवसर पैदा कर, जिसकी इनायत से) मैं भी पति-प्रभु के चरणों में जुड़ सकूँ।
(हे गुरु! तेरी कृपा से) रजा का मालिक जो हुक्म करता है वह मेल का अवसर बन जाता है, उसको कोई टाल नहीं सकता (उसमें कोई विघ्न नहीं डाल सकता)।
जीवों के किए कर्मों के अनुसार कर्तार ने (उनके मिलन व विछोड़े का) जो भी हुक्म
दिया है उसकी कोई उलंघ्ना नहीं कर सकता। (गुरु विचोले की कृपा से) वह परमात्मा जो
तीनों लोकों में व्यापक है और (फिर भी अपने पैदा किए) बंदों से स्वतंत्र है
(जीव-स्त्री को अपने चरणों में जोड़ने के लिए) दूल्हा बन के आता है। (जैसे बेटी को
विदा करती माँ दोबारा मिलने की उम्मीदें त्याग के रो के विछुड़ती है, वैसे ही) माया जीव-स्त्री के प्रभु-पति के साथ प्रेम के
कारण जीव-स्त्री को अपने काबू में रख सकने की उम्मीदें छोड़ के (मानो) रो के विछुड़ती
है। हे नानक! जीव-स्त्री गुरु के चरणों की इनायत से प्रभु-पति को हृदय में बसाती
है, और सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाले शब्द के द्वारा प्रभु की
हजूरी में आनंद पाती है।3। सतिगुरु ने (मेहर करके जीव-स्त्री माया के प्रभाव से
इतनी) दूर पहुँचा दी कि वह दोबारा जनम-मरण के चक्कर में नहीं आती। प्रभु-पति के
प्रत्यक्ष दीदार करके वह प्रसन्न-चिक्त होती है। प्रभु-पति ने (जब) उससे प्यार
किया, तो उसके चरणों में जुड़ के वह अपना आत्मिक जीवन सँवारती है।
सदा-स्थिर प्रीतम प्रभु को उस जीव-स्त्री की जरूरत पड़ी (भाव, जीव-स्त्री उसके लेखे में आ गई) उसने उसको अपने साथ मिला
लिया। (इस मिलाप की इनायत से) उसकी मति त्रुटि-हीन हो गई, वह जानी पहचानी हस्ती बन गई। सौभाग्य से उसका मिलाप हो गया, प्रभु-चरणों में उसका जीवन सुखी हो गया, वह गुणवती हो गई, गुरु के दिए ज्ञान वाली हो गई।
सत्य-संतोष और सदा-स्थिर याद उसके हृदय में टिक जाती है, वह सदा-स्थिर प्रभु को सदा सिमरती है, वह प्रभु-पति को प्यारी लगने लग जाती है। हे नानक!
जीव-स्त्री (प्रभु-चरणों से) विछुड़ के दुख नहीं पाती, गुरु की शिक्षा की इनायत से वह प्रभु की गोद में लीन हो
जाती है।4।1।
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वाहेगुरु
जी का खालसा
वाहेगुरु
जी की फतेह ॥
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