आज का फरमान (मुखवाक
)
{श्री दरबार साहिब, श्री अमृतसर , तिथि:- 23.02.2021, दिन
मंगलवार , पृष्ठ – 686 }
धनासरी महला १ ॥
सहजि मिलै मिलिआ परवाणु ॥ ना तिसु मरणु न आवणु जाणु ॥ ठाकुर महि दासु दास महि
सोइ ॥ जह देखा तह अवरु न कोइ ॥१॥ गुरमुखि भगति सहज घरु पाईऐ ॥ बिनु गुर भेटे मरि
आईऐ जाईऐ ॥१॥ रहाउ॥ सो गुरु करउ जि साचु द्रिड़ावै ॥ अकथु कथावै सबदि मिलावै ॥ हरि
के लोग अवर नही कारा ॥ साचउ ठाकुरु साचु पिआरा ॥२॥ तन महि मनूआ मन महि साचा ॥ सो साचा
मिलि साचे राचा ॥ सेवकु प्रभ कै लागै पाइ ॥ सतिगुरु पूरा मिलै मिलाइ ॥३॥ आपि
दिखावै आपे देखै ॥ हठि न पतीजै ना बहु भेखै ॥ घड़ि भाडे जिनि अम्रितु पाइआ ॥ प्रेम
भगति प्रभि मनु पतीआइआ ॥४॥ पड़ि पड़ि भूलहि चोटा खाहि ॥ बहुतु सिआणप आवहि जाहि ॥
नामु जपै भउ भोजनु खाइ ॥ गुरमुखि सेवक रहे समाइ ॥५॥ पूजि सिला तीरथ बन वासा ॥ भरमत
डोलत भए उदासा ॥ मनि मैलै सूचा किउ होइ ॥ साचि मिलै पावै पति सोइ ॥६॥ आचारा वीचारु
सरीरि ॥ आदि जुगादि सहजि मनु धीरि ॥ पल पंकज महि कोटि उधारे ॥ करि किरपा गुरु मेलि
पिआरे ॥७॥ किसु आगै प्रभ तुधु सालाही ॥ तुधु बिनु दूजा मै को नाही ॥ जिउ तुधु भावै
तिउ राखु रजाइ ॥ नानक सहजि भाइ गुण गाइ ॥८॥२॥
व्याख्या (अर्थ ) :-
धनासरी महला १ ॥
जो मनुष्य गुरु के माध्यम
से अडोल अवस्था में टिक के प्रभु-चरणों में जुड़ता है, उसका प्रभु-चरणों में जुड़ना स्वीकार हो जाता
है। उस मनुष्य को ना आत्मिक मौत आती है, ना ही जनम-मरन का चक्कर। ऐसा प्रभु का दास
प्रभु में लीन रहता है, प्रभु ऐसे
सेवक के अंदर प्रकट हो जाता है। वह सेवक जिधर देखता है उसे परमात्मा के बिना और
कोई नहीं दिखता।1। गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति करने से वह (आत्मिक)
ठिकाना मिल जाता है जहाँ मन हमेशा अडोल अवस्था में टिका रहता है। (पर) गुरु को
मिले बिना (मनुष्य) आत्मिक मौत मर के जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।1। रहाउ।
मैं (भी) वही गुरु धारण करना चाहता हूँ जो सदा-स्थिर प्रभु को (मेरे हृदय में)
पक्की तरह टिका दे, जो मुझसे अकथ
प्रभु की महिमा करवाए, और अपने शब्द
के द्वारा मुझे प्रभु चरणों में जोड़ दे। परमात्मा के भक्त को (महिमा के बिना) कोई
और कार नहीं (सूझती)। भक्त सदा-स्थिर प्रभु को ही स्मरण करता है, सदा स्थिर प्रभु उसको प्यारा लगता है।2। जिस
मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है गुरु उसको प्रभु-चरणों में मिला देता है, वह सेवक प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है, उसका मन शरीर के अंदर ही रहता है (भाव, माया-मोह में ग्रसित हुआ दसों दिशाओं में
भागता नहीं फिरता), उसके मन में
सदा-स्थिर प्रभु प्रकट हो जाता है, वह सेवक सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण करके और
उसमें मिल के उस (की याद) में लीन रहता है।3। परमात्मा अपने दर्शन आप ही (गुरु के
माध्यम से) करवाता है, खुद ही (सब
जीवों के) दिल की जानता है (इस वास्ते वह) हठ द्वारा किए कर्मों पर नहीं पतीजता, ना ही बहुत सारे (धार्मिक) भेषों पर प्रसन्न
होता है। जिस प्रभु ने (सारे) शरीर बनाए हैं और (गुरु की शरण आए किसी भाग्यशाली के
हृदय में) नाम-अमृत डाला है उसी प्रभु ने उसका मन प्रेमा-भक्ती में जोड़ा है।4। जो
मनुष्य (विद्या) पढ़-पढ़ के (विद्या के घमण्ड में से ही स्मरण से) टूट जाते हैं वे
(आत्मिक मौत की) चोटें सहते रहते हैं। (विद्या की) बहुत चातुरता के कारण जनम-मरन
के चक्कर में पड़ते हैं। जो जो मनुष्य प्रभु का नाम जपते हैं और प्रभु के डर-अदब को
अपनी आत्मा की खुराक बनाते हैं, वह सेवक गुरु की शरण पड़ कर प्रभु में लीन रहते हैं।5। जो मनुष्य पत्थर (की
मूर्तियां) पूजता रहा, तीर्थों पर
स्नान करता रहा, जंगलों में
निवास रखता रहा, त्यागी बन के
जगह-जगह भटकता-डोलता फिरा (और इन्हीं कर्मों को धर्म समझता रहा), अगर उसका मन मैला ही रहा तो वह पवित्र कैसे
हो सकता है? जो मनुष्य
सदा-स्थिर प्रभु में (स्मरण कर-करके) लीन होता है (वही पवित्र होता है, और) वह (लोक-परलोक में) इज्जत पाता है।6। हे
प्यारे प्रभु! मेहर करके मुझे वह गुरु मिला जो आँख झपकने जितने समय में करोड़ों
लोगों को (विकारों से) बचा लेता है, जिसका मन सदा ही अडोल अवस्था में टिका रहता
है और गंभीर रहता है जिसके अंदर ऊँचा आचरण भी है और ऊँची (आत्मिक) सूझ भी है।7। हे
नानक! प्रभु दर पर यूँ अरदास कर- हे प्रभु! मैं किस आदमी के सामने तेरी महिमा करूँ? मुझे तो तेरे बिना और कोई नहीं दिखता। जैसे
तेरी मेहर हो मुझे अपनी रजा में रख, ता कि (तेरा दास) अडोल आत्मिक अवस्था में टिक
के तेरे गुण गाए।8।2।
वाहिगुरु जी का खालसा वाहिगुरु जी की फतेह
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